ज़ुबैदा, करिश्मा, करीना, नसीमा
चलो आज सबको दिखा दूं सिनेमा
मेरी उम्र क्या है ये क्यूं पूछती हो
कहीं इश्क़ का जोश होता है धीमा
आशिक़ी भी दोस्तों क्या शास्त्रीय संगीत थी
राग तोड़ी जाने क्या था जाने क्या गाते रहे
ज़िंदगी भर इश्क़ का इज़हार करने के लिए
वो भी हकलाते रहे और हम भी हकलाते रहे
मिज़ाज़न मेरी बेग़म दर हक़ीक़त तेज़ है साक़ी
लबे शीरी की एक-एक लफ़्ज़ ज़हर अंगेज़ है साक़ी
मैं फिर भी मुतमईन हूं नर्म दिल होता है औरत का
अगर नम हो तो ये मिट्टी बड़ा दरखेज़ है साक़ी
कर गयी घर मेरा खाली मेरे सो जाने के बाद
मुझको धड़का था कि कुछ होगा तेरे आने के बाद
मैंने दोनों बार लिखाई थी थाने में रपट
एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद
छह महीने ही में ये हाल किया बीबी ने
साल भर तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
इस तरह रखती है वो दबाकर हमें घर में
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले
दोस्तों के बीच में हम फिर तमाशा बन गए
और हमारे सारे अरमानों का कीमा हो गया
अपनी महबूबा से मिलवाकर उसे पछताए हम
तीन दिन के बाद लल्लन का वलीमा हो गया
कितनी कंजूसी पे आमादा है सुसराल मेरी
राज़ की बताते हुए डर लगता है
ऐसे कमरे में सुला देते हैं साले मुझको
पांव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है
रहा करता है खटका जाने क्या अंजाम हो जाए
ख़बर ये आम हो जाए तो फिर कोहराम हो जाए
मोहब्बत हो गयी है डाकू सुल्ताना की बेटी से
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
हालांकि तू जवां है मोटल्लो है आज भी
फिर भी है तुझपे कितना मुझे ऐतबार देख
ख़ुदवा रहा हूं अभी से क़ब्र तेरे लिए
तू मेरा शौक़ देख मेरा इंतज़ार देख
ये इबारत चर्च के एक गेट पर तहरीर थी
थक चुके हों गर गुनाओं से तो अंदर आइए
उसके नीचे ही लिपस्टिक से किसी ने लिख दिया
और थके अब तक न हों तो मेरे घर पर आइए
चौथी शादी कर के मुल्ला-जी बहुत शादाँ हुए
अपनी क़िस्मत की बुलंदी देख कर नाज़ाँ हुए
यूँ जवानों की तरह लाए दुल्हन को साथ में
आ गई हो जैसे सुल्ताना कहीं की हाथ में
पहले ही दिन सारे घर का जाएज़ा उस ने लिया
अपने शौहर की नज़र का जाएज़ा उस ने लिया
चार कीलें ख़ास कमरे में नज़र आईं उसे
तीन कीलों पर दुपट्टे भी नज़र आए टँगे
मुल्ला-जी से उस ने पूछा ये दुपट्टे किस के हैं
ये है किस किस की निशानी ये अतीए किस के हैं
मुल्ला-जी ने यूँ दिया उस के सवालों का जवाब
ऐ मिरी प्यारी दुल्हन ऐ आफ़्ताब ओ महताब
बेगमात-ए-साबिक़ा जो इस जहाँ से उठ गईं
ये दुपट्टे हैं इन्हीं की यादगार-ए-दिल-नशीं
जब तुम इस दुनिया से उठ जाओगी ऐ जान-ए-जहाँ
तब तुम्हारा भी दुपट्टा टाँग दूँगा मैं यहाँ
बोलीं बेगम मौत के पंजे में शौहर आएगा
अब दुपट्टे का नहीं टोपी का नंबर आएगा
एक बीवी कई साले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
खाल सब खींचने वाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
तन के वो उजले नज़र आते हैं जितने यारो
मन के वो इतने ही काले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
कूचा-ए-यार का तय होगा सफ़र अब कैसे
पाँव में छाले ही छाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
मेरा ससुराल में कोई भी तरफ़-दार नहीं
उन के होंटों पे भी ताले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
क्या तअज्जुब है किसी रोज़ हमें भी डस लें
साँप कुछ हम ने पाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
ऐसी तब्दीली तो हम ने कभी देखी न सुनी
अब अँधेरे न उजाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
हर वरक़ पर है छपी ग़ैर-मोहज़्ज़ब तस्वीर
कितने बेहूदा रिसाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
‘पापुलर’ हाथ में कट्टा है तो बस्ते में हैं बम
बच्चे भी कितने जियाले हैं ख़ुदा ख़ैर करे
है बहुत मूड में इस वक़्त दिल-ए-ज़ार चलो
तुम मिरे साथ चलो और लगातार चलो
भाड़ में डालो हर इक वक़्त की दीवार चलो
कहीं गुमराह न हो जाए यहाँ प्यार चलो
हम हैं जब दोनों मोहब्बत में गिरफ़्तार चलो
चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो
ये जो दुनिया है ये हम को नहीं मिलने देगी
उम्र भर अपनी जगह से न ये हिलने देगी
इश्क़ के चाक-ए-गरेबाँ को न सिलने देगी
प्यार के ग़ुंचों को हरगिज़ नहीं खिलने देगी
ऐसे आलम में मुनासिब नहीं इंकार चलो
चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो
डालते रहते हैं डोरे ये ज़माने के हसीं
अपनी नज़रों में हैं ऐसे कई ग़ारत-गर-ए-दीं
तुम को इस बात का एहसास कोई है कि नहीं
दिल न पड़ जाए किसी और के चक्कर में कहीं
मेरी मानो तो अभी छोड़ के घर-बार चलो
चलो दिलदार चलो चाँद के पास चलो
रह के इस दुनिया में तुम ने अभी देखा क्या है?
बस ये सोचो कि मोहब्बत का तक़ाज़ा क्या है?
रिश्ता-दारों की इनायत का भरोसा क्या है?
साथ हैं हम जो तुम्हारे तुम्हें खटका क्या है?
अब तो रहने दो बहुत हो चुकी तकरार चलो
चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो
ख़ौफ़-ए-रुस्वाई कोई चाँद की दुनिया में नहीं
मामी या ताई कोई चाँद की दुनिया में नहीं
एक हरजाई कोई चाँद की दुनिया में नहीं
आप का भाई कोई चाँद की दुनिया में नहीं
ख़ुश-नसीबी के नज़र आते हैं आसार, चलो
चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो
चाँद के पार सुना है कि फ़ज़ा अच्छी है
सुर्ख़ हो जाओगी तुम आब-ओ-हवा अच्छी है
जिस जगह हम हैं यहाँ से तो ज़रा अच्छी है
मान लो राय हमारी ब-ख़ुदा अच्छी है
आए दिन तुम तो यहाँ रहती हो बीमार चलो
चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो
उस बाप से नाता तोड़ लिया जिस बाप का था बेहद प्यारा
तू माल हड़प कर बैठा है रोता है ख़ुसुर भी बेचारा
दस्तों में आग ही निकलेगी खाएगा अगर तू अँगारा
तू माल और धन के चक्कर में फिरता है अबस मारा मारा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा
क्या फ़ाएदा रुस्वा होने से रुस्वाई का आग़ाज़ न कर
जिस हाल में तू है अच्छा है अब आरज़ू-ए-एज़ाज़ न कर
ख़्वाबों की अनोखी दुनिया में तू हद से सिवा पर्वाज़ न कर
दौलत से वफ़ा ना-मुम्किन है दौलत पे ज़ियादा नाज़ न कर
सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा
शौहर की तबाही की ख़ातिर बस एक ही औरत काफ़ी है
ये बात न सब पर ज़ाहिर हो तो साहिब दौलत काफ़ी है
दस बीस इमारत क्या होंगी बस एक इमारत काफ़ी है
अंजाम समझने की ख़ातिर शद्दाद की जन्नत काफ़ी है
सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा
छै कारें हैं दो कारों को ख़ैरात में दे दे अच्छा है
तू क़ौम के ख़िदमत-गारों को ख़ैरात में दे दे अच्छा है
जो कुछ है वो ग़म के मारों को ख़ैरात में दे दे अच्छा है
तू अपनी ज़मीं नादारों को ख़ैरात में दे दे अच्छा है
सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा
याद आने लगे चचा ग़ालिब या इलाही! ये माजरा क्या है? ताकत हूं हर लड़की को वर्ना इन आँखों का फ़ायदा क्या है कपड़ो की आबो ताब दिखने में रह गया कुछ ख़ूबसूरतों को लुभाने में रह गया मुर्गे की टांग खा गई शादी में सारे लोग मैं गंतव्य से हाथ मिलाने में रह गया
गले-बाज़ी के लिए मुल्क में मशहूर हैं हम
शेर कहने का सवाल आए तो मजबूर हैं हम
अपने अशआर समझने से भी म’अज़ूर हैं हम
फ़न से ‘ग़ालिब’ के बहुत दूर बहुत दूर हैं हम
अपनी शोहरत की अलग राह निकाली हम ने
किसी दीवाँ से ग़ज़ल कोई चुरा ली हम नेसरक़ा-ए-फ़न पे सभी साहब-ए-फ़न झूम उठे
शेर ऐसे थे कि अर्बाब-ए-सुख़न झूम उठे
लाला-रुख़ झूम उठे शोला-बदन झूम उठे
शैख़-जी झूम उठे लाला-मदन झूम उठे
कल जो क़ाएम था हमारा वो भरम आज भी है
यानी अल्लाह का मख़्सूस करम आज भी हैकहीं नौ-सौ हमें मिलते हैं कहीं डेढ़-हज़ार
चाहने वाले हैं इतने कि नहीं कोई शुमार
एक इक शेर को पढ़वाते हैं सब दस दस बार
या इलाही न हो आवाज़ हमारी बे-कार
होगी आवाज़ जो बे-कार तो मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगेरोज़ रहते हैं सफ़र में हमें सब जानते हैं
‘नाज़िश’ ओ ‘हाफ़िज़’ ओ ‘ख़य्याम’ हमें मानते हैं
कितने ही ग़ालिब-ए-दौरान हमें गर्दानते हैं
‘नूर’-भय्या हूँ कि ‘ताबाँ’ सभी पहचानते हैं